पटनासिटी(न्यूज़ क्राइम 24): रानीपुर में सती सावित्री सत्यवान का मेला लगता था, जब रात्री में बेगमपुर सती स्थान से खपड आता था. लेकिन इस बार खपड ही आया जो पारंपरिक होता है. कोरोना को लेकर इसबार नही निकला पंजरभोकबा और ना ही मेला का आयोजन हुआ.
बताया जाता है कि कई वर्षों से ये परम्परा चलते आ रहा जो अपने आप मे एक मिसाल होता है ये
अंचल के रानीपुर इलाके में पंजरभोकबा मेला का आयोजन किया जाता है। यह मेला जितना प्राचीन माना जाता है, उतना ही अनोखा व विचित्र भी है. इस मेले का आयोजन सत्तुआनी के ठीक दूसरे दिन किया जाता है। लोग अपने पूरे शरीर में त्रिशूल की आकृति के लोहे के पंजरे को घोंप लेते है, इसके बाद पंरपरागत गीतों पर नृत्य करते है। ऐसे नर्तकों को गबई भाषा में पंजरभोकबा कहा जाता है। पूरी रात पंजरभोकबा इन इलाकों में घूम-घूम कर नृत्य करते है। यह मेला इसलिए भी अनोखा है क्योंकि यह मेला रात्रि के दूसरे पहर में शुरु होता है और अंतिम पहर में समाप्त हो जाता है। आज से चार दशक पूर्व यह मेला पूरे अंचल में होता था अब यह रानीपुर इलाके में ही सिमटकर रह गया है। अब इस मेले का प्रतीकात्मक स्वरूप ही शेष रह गया है.
इस मेले को सावित्री-सत्यवान की याद में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यमराज ने सावित्री को तीन बरदान यहीं दिए थे। यहां यमराज के तीन बरदान से जुड़े तीन शती चौरा भी है। एक किवदंती है कि इस मेले में तांत्रिक अपने तन्त्र-मन्त्र की शक्ति का भी प्रदर्शन किया करते थे। इस मौके पर यहाँ सावित्री-सत्यवान तथा यमराज की प्रतिमा भी बिठायी जाती है ओर उनकी विधिबत पूजा-अर्चना भी की जाती है।