प्रकृति के इस महापर्व की आस्था इतनी है कि आज यह बिहार के गांवों से निकल महानगरों तक दिखाई देती है. देश की सीमाओं से परे दुनिया के कई कोने अब ऐसे हैं, जहां मिट्टी के चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ी है. आम की लकड़ी जल रही है और देसी घी में ठेकुआ छन कर निकाला जा रहा है. आस्था का यह लोक रंग इतना गहरा कैसे है?सतयुग के आखिरी में राजा प्रियंवद ने की थी छठ पूजा।प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न देवी हैं छठ की माता।दीपावली बीतने के साथ ही इस वक्त बिहार में छठ महापर्व की धूम है. कभी गांव के पोखरों-तालाबों तक ही सीमित रही आस्था की यह धारा दुनिया भर में ऐसी फैली है कि, श्रद्धा का महासागर बन गई है.
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को जब सूर्य देव विदा ले रहे होते हैं और सप्तमी तिथि को जब उनका आगमन होता है, तो कमर तक पानी में डूबी व्रती महिलाएं उनका अनुष्ठान करती हैं. सीमाओं से परे छठ महापर्व प्रकृति के इस महापर्व की आस्था इतनी है कि आज यह बिहार के गांवों से निकल महानगरों तक दिखाई देती है. देश की सीमाओं से परे दुनिया के कई कोने अब ऐसे हैं, जहां मिट्टी के चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ी है. आम की लकड़ी जल रही है और देसी घी में ठेकुआ छन कर निकाला जा रहा है.।
आस्था का यह लोक रंग इतना गहरा कैसे है? ऐसा सवाल उठता है तो जवाब किसी लोककथा का हवाला थमा देते हैं. अब तक छठ को लेकर कई तरह की कथाएं सामने आई होंगी, लेकिन एक अनोखी कथा ऐसी है, जिससे लोक भी अब धीरे-धीरे अंजान हो रहा है. सतयुग की एक कथा पुराणों के अनुसार एक थे राजा प्रियंवद. कहते हैं कि राजा को कोई संतान नहीं थी. ये बात सतयुग के आखिरी चरण की बताई जाती है. तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया और राजा प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञ आहुति के लिए बनाई गई खीर दी.
रानी ने खीर खाई और इसके प्रभाव से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति तो हुई लेकिन वह बच्चा मृत पैदा हुआ. राजा को हुई पुत्र प्राप्ति।प्रियंवद अपने मृत पुत्र के शरीर को लेकर श्मशान गया और पुत्र वियोग में अपने भी प्राण त्यागने लगा. तभी भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने प्रियंवद से कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं. हे राजन तुम मेरा पूजन करो और दूसरों को भी प्रेरित करो. राजा ने पुत्र इच्छा से सच्चे मन से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी. कहा जाता है, कि तब से लोग संतान प्राप्ति के लिए छठ पूजा का व्रत करते हैं. कालांतर में यही देवी देवसेना, षष्ठी देवी या फिर छठी माता कहलाई. जिनकी आज पूजा की जाती है.